भीष्म अष्टमी व्रत | Bhisma Ashtami Vrath Katha | Bhismashtami Fast in Hindi
भीमाष्टमी व्रत माघ मास के शुक्ल पक्ष की अष्टमी तिथि को किया जाता है. इस दिन महाभारत के उल्लेखित भीष्मपितामह को अपनी इच्छा अनुसार मृ्त्यु प्राप्त हुई थी. भीष्मपितामह को बाल ब्रह्मचारी और कौरव के पूर्वजों के नाम से भी जाना जाता है. इस दिन भीष्म के नाम से पूजन और तर्पण करने से वीर और सत्यवादी संतान की प्राप्ति होती है.
भीष्म पितामह ने आजीवन ब्रह्मचारी रहने की अखंड प्रतिज्ञा ली थी. उनका पूरा जीवन सत्य और न्याय का पक्ष लेते हुए व्यतीत हुआ. यही कारण है, कि महाभारत के सभी पात्रों में भीष्म पितामह अपना एक विशिष्ट स्थान रखते है. इनके पिता महाराज शांतनु थे, तथा माता भगवती गंगा थी. इनका जन्म का नाम देवव्रत था. परन्तु अपने पिता के लिये इन्होंने आजीवन विवाह न करने का प्रण लिया. इसी कारण से इनका नाम भीष्म पडा.
भीष्माष्टमी व्रत कथा | Bheeshma Ashtami Vrat Katha
महाभारत के तथ्यों के अनुसार गंगापुत्र देवव्रत की माता देवी गंगा अपने पति को दिये वचन के अनुसार अपने पुत्र को अपने साथ ले गई थी. देवव्रत की प्रारम्भिक शिक्षा और लालन-पालन इनकी माता के पास ही पूरा हुआ. इन्होनें महार्षि परशुराम जी से शस्त्र विद्धा ली. दैत्यगुरु शुक्राचार्य से भी इन्हें काफी कुछ सिखने का मौका मिला. अपनी अनुपम युद्धकला के लिये भी इन्हें विशेष रुप से जाना जाता है.
जब देवव्रत ने अपनी सभी शिक्षाएं पूरी कर ली तो, उन्हें उनकी माता ने उनके पिता को सौंप दिया. कई वर्षों के बाद पिता-पुत्र का मिलन हुआ, और महाराज शांतनु ने अपने पुत्र को युवराज घोषित कर दिया. समय व्यतीत होने पर सत्यवती नामक युवती पर मोहित होने के कारण महाराज शांतनु ने युवती से विवाह का आग्रह किया. युवती के पिता ने अपनी पुत्री का विवाह करने से पूर्व यह शर्त महाराज के सम्मुख रखी की, देवी सत्यवती की होने वाली संतान ही राज्य की उतराधिकारी बनेगी. इसी शर्त पर वे इस विवाह के लिये सहमति देगें.
यह शर्त महाराज को स्वीकार नहीं थी, परन्तु जब इसका ज्ञान उसके पुत्र देवव्रत को हुआ तो, उन्होंने अपने पिता के सुख को ध्यान में रखते हुए, यह भीष्म प्रतिज्ञा ली कि वे सारे जीवन में ब्रह्माचार्य व्रत का पालन करेगें. देवव्रत की प्रतिज्ञा से प्रसन्न होकर उसके पिता ने उसे इच्छा मृ्त्यु का वरदान दिया.
कालान्तर में भीष्म को पांच पांडवों के विरुद्ध युद्द करना पडा. शिखंडी पर शस्त्र न उठाने के अपने प्रण के कारण उन्होने युद्ध क्षेत्र में अपने शस्त्र त्याग दिये. युद्ध में वे घायल हो, गये और 18 दिनों तक मृ्त्यु शया पर पडे रहें, परन्तु शरीर छोडने के लिये उन्होंने सूर्य के उतरायण होने की प्रतिक्षा की. जीवन की विपरीत परिस्थितियों में भी अपनी प्रतिज्ञा को निभाने के कारण देवव्रत भीष्म के नाम से अमर हो गए.
माघ मास के शुक्लपक्ष की अष्टमी को भीष्म पितामह की निर्वाण तिथि के रुप में मनाया जाता है. इस तिथि में कुश, तिल, जल से भीष्म पितामह का तर्पण करना चाहिए. इससे व्यक्ति को सभी पापों से मुक्ति मिलती है.
यह व्रत उसी पुन्यात्मा की स्मृ्ति में मनाया जाता है.
भीष्माष्टमी व्रत महत्व | Bhishmashtami Vrat Significance
इस व्रत को करने से पितृ्दोष से मुक्ति मिलती है. और संतान की कामना भी पूरी होती है. व्रत करने वाले व्यक्ति को चाहिए, कि इस व्रत को करने के साथ साथ इस दिन भीष्म पितामह की आत्मा की शान्ति के लिये तर्पण भी करें. और पितामह के आशिर्वाद से उपवासक को पितामह समान सुसंस्कार युक्त संतान की प्राप्ति होती है.